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नाराज़ है दिन, ख़ामोश है रातें


नाराज़ है दिन, ख़ामोश है रातें,

बिना आपके, हर पल लगे हैं बरसातें।

ज़िन्दगी के जिम्मेदारियों का बोझ यूँ भारी,

अपने आप को भूले, दिल में उठती है बेचैनी सारी।


दिन के शोर में छुपा लें चाहे नाराजगी अपनी,

पर ये ख़ामोश रातों की ख़ामोशी, दिल में धड़कन बनी।

वो ख़ामोशी जो दिल की गहराइयों में शोर मचा देती है,

एक सन्नाटा सा लाती है, जो ख़्वाबों में भी बातें करती है।


राहों में बिछी हैं यादों की वो पुरानी कहकशां,

जहाँ हर कदम पर बस तेरी यादों का है आसमां।

इस बीचारे दिल को तेरी आरज़ू का रोग लगा,

हर एक लम्हा तेरी कमी का आईना दिखा।


जिस दिन से तूम दूर हुए, हर दिन बोझिल सा लगे,

जैसे रातों की चाँदनी भी मेरे संग नाराज़ हो जाए।

फिर भी, इस दिल के कोने में एक उम्मीद जगती है,

तेरे आने की, तेरे साथ फिर से वो सुबह बनती है।


अब तो बस, यही ख़्वाहिश है, यही तमन्ना है,

कि तुम वापस आओ, और ये नाराज़ दिन, ख़ामोश रातें बहार बन जाएं।

क्योंकि इस दिल की गहराइयों में, अब भी तेरी मोहब्बत का शोर है,

हम अब भी नाराज़ हैं इन दिनों से, और उन ख़ामोश सी रातों से।


लेखक : कुमार

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